18 जून 2025 को गोवा में ‘क्रांति दिवस’ की 79वीं वर्षगांठ मनाई गई। यह दिवस 1946 में हुए उस ऐतिहासिक आंदोलन की याद दिलाता है जब गोवा को पुर्तगाली शासन से आज़ाद कराने की पहली संगठित आवाज़ उठी थी। आज़ादी के उस संघर्ष को याद करते हुए गोवा एक बार फिर देशभक्ति के जज़्बे से ओतप्रोत हो गया। लेकिन इस ऐतिहासिक दिन के पीछे की पृष्ठभूमि, समकालीन प्रासंगिकता और इसके सामाजिक-राजनीतिक प्रभावों का विश्लेषण करना आवश्यक है ताकि केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि तर्कसंगत दृष्टिकोण से भी इसकी समझ बन सके।
1946 में जब भारत में आज़ादी की लड़ाई अंतिम दौर में थी, गोवा अब भी पुर्तगालियों के अधीन था। 18 जून 1946 को डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने मडगांव में एक विशाल जनसभा को संबोधित किया और पहली बार खुलेआम पुर्तगाली राज के खिलाफ सिविल नाफरमानी आंदोलन शुरू करने का आह्वान किया। यह दिन गोवा में औपनिवेशिक शासन के खिलाफ एक महत्वपूर्ण मोड़ बन गया।
इस आंदोलन से प्रेरित होकर गोवा के युवाओं ने संघर्ष को तेज किया और कई लोगों को जेल जाना पड़ा। हालांकि गोवा को भारत से औपचारिक रूप से जोड़ने में अभी 15 साल बाकी थे, लेकिन यह दिवस स्वतंत्रता के बीज बोने वाला क्षण था।
गोवा को भारत ने 19 दिसंबर 1961 को सैन्य कार्रवाई के ज़रिए आज़ाद कराया था, जिसे ‘ऑपरेशन विजय’ कहा गया।
18 जून को ‘क्रांति दिवस’ के रूप में गोवा सरकार ने आधिकारिक मान्यता दी है।
हर वर्ष इस दिन परेड, श्रद्धांजलि सभाएं, और सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित होते हैं।
यह तिथियां और घटनाएं प्रामाणिक ऐतिहासिक स्रोतों से पुष्ट हैं, जैसे भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार, गोवा स्टेट म्यूज़ियम, और स्वतंत्रता संग्राम के दस्तावेज।
आज जब भारत 21वीं सदी के लोकतांत्रिक मूल्यों की बात करता है, तब ऐसे आंदोलनों की स्मृति नई पीढ़ी को अपनी जड़ों से जोड़ने का कार्य करती है। क्रांति दिवस केवल एक ऐतिहासिक स्मरण नहीं, बल्कि यह आज़ादी के संघर्ष के स्वरूप, नेतृत्व और सामाजिक भागीदारी की जीवंत मिसाल है।
इस वर्ष, गोवा के मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत ने कहा कि “हम डॉ. लोहिया और गोवा के स्वतंत्रता सेनानियों के ऋणी हैं।” साथ ही उन्होंने गोवा में एक स्वतंत्रता संग्राम स्मारक संग्रहालय की घोषणा भी की।
हालांकि समारोह और श्रद्धांजलि प्रतीकात्मक रूप से महत्वपूर्ण हैं, परंतु यह सवाल उठता है कि क्या गोवा में स्वतंत्रता संग्राम की विरासत को शिक्षा और शोध के माध्यम से पर्याप्त मान्यता मिल रही है? राज्य के स्कूल पाठ्यक्रम में गोवा के स्वतंत्रता संघर्ष को सीमित पंक्तियों में समेटा गया है, जिससे युवाओं को उसकी गहराई नहीं समझ में आती।
इतिहासकारों का मानना है कि डॉ. लोहिया जैसे नेता राष्ट्रीय पाठ्यक्रमों में महात्मा गांधी, नेहरू या सुभाष चंद्र बोस जितना स्थान नहीं पाते, जबकि उनका गोवा में योगदान क्रांतिकारी था।
सरकारी पक्ष: सरकार इस दिन को राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक गौरव के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करती है।
इतिहासकार: वे इसे ‘नव जागरण की शुरुआत’ मानते हैं, जो उपेक्षित रही है।
सामाजिक संगठन: कुछ स्थानीय संगठन मांग कर रहे हैं कि इस दिन को राष्ट्रीय छुट्टी घोषित किया जाए ताकि पूरे देश में इसका महत्त्व बढ़े
क्रांति दिवस को अगर 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ या 1930 के ‘नमक सत्याग्रह’ से तुलना करें, तो यह आंदोलन अपेक्षाकृत स्थानीय था, परंतु इसका प्रभाव क्षेत्रीय चेतना और सामाजिक जागरूकता पर बहुत गहरा पड़ा। जहां अन्य आंदोलनों में कांग्रेस की केंद्रीय भूमिका रही, वहीं गोवा के आंदोलन में समाजवादी नेताओं और स्थानीय जनसहभागिता ने अग्रणी भूमिका निभाई।
संवेदनात्मक असर: यह दिन गोवा की पहचान और गौरव का स्रोत बन गया है।
शैक्षणिक और शोध कार्य: आंदोलन पर शोध कार्य की कमी है, जिसे बढ़ाने की आवश्यकता है।
सांस्कृतिक पहचान: गोवा की सांस्कृतिक विरासत में स्वतंत्रता संग्राम का महत्त्वपूर्ण स्थान तय करता है।
‘क्रांति दिवस’ एक प्रतीक है उस साहस, बलिदान और राष्ट्रीय चेतना का, जिसे आज की पीढ़ी को समझना और आत्मसात करना आवश्यक है। इतिहास केवल भावनाओं का संग्रह नहीं, वह तर्क, स्मृति और शिक्षा का ज़रिया है। गोवा में 1946 की हुंकार आज भी यह सिखाती है कि स्वतंत्रता कोई स्थायी गारंटी नहीं, बल्कि निरंतर सजगता और संघर्ष का परिणाम है। इसलिए ज़रूरत है कि इस दिवस को केवल सरकारी रस्मों तक सीमित न रखकर, इसे राष्ट्रीय विमर्श में शामिल किया जाए — ताकि हर भारतीय समझ सके कि गोवा की आज़ादी भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण थी, जितनी भारत की।
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