ओडिशा के कालाहांडी जिले से एक प्रेरक कहानी सामने आई है, जो न सिर्फ इनोवेशन की मिसाल है, बल्कि महिलाओं की आत्मनिर्भरता और प्रकृति से तालमेल की एक अनोखी मिसाल भी है। यहां की आदिवासी महिलाएं ने जंगल में मिलते हुए कचरे और आदि कौशलों की मदद से एक ऐसा सोलर कूकर तैयार किया है, जो न केवल खाना पकाता है, बल्कि धुएं और लकड़ी की खपत को भी पूरी तरह खत्म कर देता है।
गांव की रसोई से निकली भविष्य की तकनीक
कालाहांडी के लांजीगढ़ ब्लॉक के कुछ आदिवासी गांवों में, महिलाएं अब सूरज की रोशनी से खाना पका रही हैं। ये कोई बाहर से आया हुआ सोलर कूकर नहीं है, बल्कि इन महिलाओं ने खुद इसे तैयार किया है—वो भी जंगल में पड़ी बांस की छड़ियों, पुराने एल्यूमिनियम के बर्तनों और टूटी सीसा-मढ़ी चादरों से।
60 वर्षीय दुर्गा माझी
“वे जंगल से बेकार पड़ा सामान देखकर सोच गए कि इससे कुछ बना सकते हैं। सूरज की रोशनी तो आज भी सब दिन है, उसी से कुछ नया कर दिखाया। पहले सुबह और शाम जलावन के लिये लकड़ी के लिये जंगल जाना पांच-पांच घंटे लगते थे, अब दोपहर की धूप में खाना अपने-आप बनता है।”
कैसे काम करता है यह देसी सोलर कूकर?
इस सोलर कूकर का निर्माण बेहद सरल और वैज्ञानिक है। बांस के एक गोल फ्रेम का निर्माण किया गया, जिस पर शीशे की पुरानी चादरें गोल घुमाकर लगाई गईं। बीच में काले रंग का एल्यूमिनियम का बर्तन रखा जाता है, जो सूरज की किरणों को केंद्रित करके गर्म हो जाता है। यह कूकर 80 से 90 डिग्री सेल्सियस तक गर्मी पैदा कर सकता है—जो दाल, चावल, सब्जी जैसे पारंपरिक भोजन पकाने के लिए पर्याप्त है।
वरदान नहीं, बल्कि पर्यावरण के लिए भी
यह नवाचार का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इससे लकड़ी की खपत करीब शून्य हो गई है। महिलाओं को जंगल में जाकर पेड़ काटने की आवश्यकता अब नहीं पड़ती। इससे न केवल बचत हो रहा है पर्यावरण, बल्कि और सबसे ज़रूरी बात, महिलाओं का समय और ऊर्जा भी।
स्थानीय NGO ‘सौर संगिनी’
“यह एक खोज नहीं है, जो सिर्फ तकनीकी है, परंतु एक सामाजिक क्रांति है। जब महिलाएं दूसरों के लिए प्रेरणा बन जाती हैं, जहाँ वो अपने संसाधनों से सस्टेनेबल सॉल्यूशन निकालती हैं।”
आर्थिक रूप से भी लाभदायक
गांव की महिलाएं अब अपने सोलर कूकर के डेमो स्थानीय मेलों और स्वयं सहायता समूहों की बैठकों में दिखा रही हैं। कुछ ग्रामीण स्कूलों ने भी इस तकनीक को अपनाने की इच्छा जताई है। इससे महिलाओं के पास कमाई का एक नया जरिया भी खुल रहा है।
गांव की कमला बाड़ी
“अब हम यह कूकर 300-400 रुपए पर बेच सकते हैं। जो पहले बेकार सामान था, वही अब पैसा कमा रहा है। हम सोच रहे हैं, इसे और अच्छे डिज़ाइन में बनाकर बाजार में ले जाएं।”
सरकार का फोकस और अवसर
हालांकि अभी तक इस प्रयास को कोई बड़ा सरकारी समर्थन नहीं मिला है, लेकिन जिला प्रशासन ने इस प्रयोग को लेकर रुचि दिखाई है। अगर इस तकनीक को राज्य स्तर पर प्रमोट किया जाए तो यह एक बड़ी ग्रामीण क्रांति बन सकती है।
कालाहांडी जिलाधिकारी आलोक नाथ ने कहा—
“हमने महिलाओं के इस नवाचार की जांच की और यह वाकई कारगर है। हम कोशिश करेंगे कि इसे मिशन शक्ति योजना के तहत विस्तार दिया जाए।”
ओडिशा की इस आदिवासी महिलाओं ने यह साबित कर दिया कि नवाचार मतलब लैब में बैठकर मशीन बनाना नहीं होता, बल्कि ज़मीन से जुड़ी जरूरतों को समझकर काम करना होता। जंगल में पड़ी चीज़ें और थोड़ी सी समझदारी, मिलकर एक ऐसा समाधान बना सकती हैं जो पर्यावरण, समाज और महिलाओं की आज़ादी—तीनों को साथ लेकर चले।
एकबार जलती लकड़ियों के धुएं में आंखें जलाती ये महिलाएं, अब सूरज की रौशनी से उम्मीद की नई चिंगारी जला रही हैं।
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