भारत के चुनाव आयोग (ECI) ने हाल ही में एक बड़ा और विवादास्पद निर्णय लिया है – अब मतदाता को मतदान से पहले अपना “जन्म प्रमाण” प्रस्तुत करना होगा। इस योजना की शुरुआत बिहार से होगी। चुनाव आयोग का तर्क है कि इससे फर्जी मतदान पर रोक लगेगी और मतदाता सूची अधिक पारदर्शी बनेगी। लेकिन यह निर्णय कई स्तरों पर गंभीर प्रश्न खड़े करता है – कानूनी, सामाजिक, और प्रशासनिक।
भारत में अभी तक वोटर बनने के लिए आयु का प्रमाण (18 वर्ष या अधिक) देना आवश्यक होता है, परंतु सामान्यतः आधार कार्ड, स्कूल प्रमाण पत्र, या राशन कार्ड जैसी पहचानें स्वीकार की जाती रही हैं। अब चुनाव आयोग जन्म प्रमाणपत्र को प्राथमिक दस्तावेज मानने जा रहा है, खासतौर पर नए पंजीकरणों के लिए।
यह पहल राष्ट्रीय स्तर पर नहीं, बल्कि बिहार जैसे सामाजिक-राजनीतिक रूप से संवेदनशील राज्य से शुरू की जा रही है, जहाँ पहचान आधारित राजनीति गहरी जड़ें जमा चुकी है।
ECI के अनुसार, हाल ही में बिहार की मतदाता सूची में 11% नाम या तो फर्जी पाए गए या दोहराव में थे। आयोग का यह भी दावा है कि कई मृत लोगों के नाम अभी तक सूची में हैं, और एक प्रभावी पहचान प्रणाली से इस पर रोक लगाई जा सकती है।
हालाँकि, राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (NSO) की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में केवल 80% जन्म पंजीकरण ही औपचारिक रूप से होता है, और ग्रामीण क्षेत्रों में यह अनुपात 60% से भी कम है। बिहार में यह प्रतिशत और भी कम — करीब 51% बताया गया है।
ग्रामीण, अनुसूचित जाति/जनजाति, और अशिक्षित वर्गों के पास अक्सर जन्म प्रमाणपत्र नहीं होते। क्या ऐसे वर्गों को अब मतदान से वंचित किया जाएगा?
कुछ आलोचक इस निर्णय को सत्ताधारी दल की रणनीति मानते हैं, जिससे ‘अनचाहे’ मतदाता वर्ग को हाशिये पर धकेला जा सके। हाल के वर्षों में नागरिकता और पहचान से जुड़ी बहसें (CAA, NRC) इस आशंका को और गहरा करती हैं।
सकारात्मक प्रभाव:
मतदाता सूची अधिक स्वच्छ और भरोसेमंद होगी
फर्जी वोटिंग पर लगाम लग सकती है
ईवीएम और चुनावी प्रक्रिया की वैधता को लेकर भरोसा बढ़ेगा
लाखों लोगों को मतदान से रोका जा सकता है जिनके पास जन्म प्रमाण नहीं
जातीय और आर्थिक आधार पर भेदभाव की संभावना
चुनाव आयोग का मत: “यह एक तकनीकी सुधार है जिसका उद्देश्य मतदाता पहचान को मज़बूत करना है। इससे लोकतंत्र को मजबूती मिलेगी।”
“यह निर्णय लोकतंत्र को कमजोर कर सकता है। भारतीय संविधान अनुच्छेद 326 के अनुसार, केवल आयु और नागरिकता मतदान के लिए पर्याप्त मानी गई है, जन्म प्रमाणपत्र अनिवार्य करना संवैधानिक सवाल उठाता है।”
कुछ विश्लेषकों का कहना है कि यह कदम सिर्फ तकनीकी नहीं बल्कि राजनीतिक रणनीति भी हो सकता है, खासकर यदि इसे विशेष समुदायों को लक्ष्य कर के लागू किया जाए।
दुनिया के कई लोकतांत्रिक देशों में पहचान के लिए विविध दस्तावेज स्वीकार किए जाते हैं। उदाहरण के लिए, अमेरिका में कुछ राज्यों में ID आवश्यक है, लेकिन कई जगह विकल्प उपलब्ध हैं। वहीं जर्मनी जैसे देशों में सरकारी पहचान पत्र अनिवार्य होते हैं, पर ये सभी को निःशुल्क प्रदान किए जाते हैं।
भारत जैसे विविध और असमानता से ग्रस्त देश में यदि कोई पहचान दस्तावेज अनिवार्य किया जाता है, तो पहले उसकी सार्वभौमिक उपलब्धता सुनिश्चित करनी होगी।
बिहार से शुरू होने वाला यह निर्णय एक बड़ा चुनावी मोड़ साबित हो सकता है। चुनाव आयोग की मंशा भले ही चुनाव सुधार की हो, पर इसके सामाजिक और लोकतांत्रिक निहितार्थों की अनदेखी नहीं की जा सकती। यह फैसला अगर जल्दबाज़ी में या बिना समुचित तैयारी के लागू हुआ, तो यह लाखों भारतीयों के वोट देने के अधिकार को प्रभावित कर सकता है और अंततः लोकतंत्र की आत्मा को भी।
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