8 मई, नई दिल्ली:
मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने देश में आरक्षण व्यवस्था को लेकर एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की। कोर्ट ने कहा कि आरक्षण अब ऐसा हो गया है जैसे ट्रेन की बोगी—जो लोग पहले से अंदर हैं, वे नहीं चाहते कि कोई और उसमें घुसे। यह टिप्पणी यह दिखाती है कि समाज में समावेशिता (Inclusivity) को अपनाने में अब भी मुश्किलें हैं और जो लोग पहले से लाभ ले रहे हैं, वे बाकी जरूरतमंदों को मौका नहीं देना चाहते।
सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा कि जब समावेशिता को अपनाया जाता है, तो राज्य की जिम्मेदारी बनती है कि वह उन वर्गों की पहचान करे जो सामाजिक, आर्थिक या राजनीतिक रूप से पिछड़े हैं। कोर्ट ने यह सवाल भी उठाया कि आरक्षण का फायदा केवल कुछ खास परिवारों या वर्गों तक ही क्यों सीमित रहे?
यह टिप्पणी महाराष्ट्र में ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) को स्थानीय निकाय चुनावों में मिलने वाले आरक्षण से जुड़ी सुनवाई के दौरान की गई। कोर्ट ने पहले महाराष्ट्र सरकार द्वारा 27% ओबीसी आरक्षण देने के फैसले को रद्द कर दिया था क्योंकि वह संविधान में तय की गई ‘ट्रिपल टेस्ट’ प्रक्रिया को पूरा नहीं करता था।
ट्रिपल टेस्ट में क्या-क्या शामिल है?
- एक विशेष आयोग बनाना जो ओबीसी वर्ग की स्थिति का गहराई से अध्ययन करे।
- यह तय करना कि किस निकाय में कितना प्रतिशत आरक्षण जरूरी है।
- कुल आरक्षण 50% से ज़्यादा न हो।
चूंकि महाराष्ट्र सरकार ने ये तीनों शर्तें पूरी नहीं की थीं, सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को आदेश दिया कि ओबीसी के लिए आरक्षित 7% सीटों को सामान्य सीटों में बदला जाए और चुनाव कराए जाएं।
बाद में, महाराष्ट्र सरकार ने बंथिया आयोग गठित किया, जिसने एक विस्तृत सर्वे करके 781 पन्नों की रिपोर्ट सौंपी। इस रिपोर्ट के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने राज्य में ओबीसी को फिर से 27% आरक्षण देने की अनुमति दी क्योंकि अब शर्तें पूरी हो चुकी थीं।
सुप्रीम कोर्ट की ये टिप्पणी और निर्देश यह दिखाते हैं कि संविधान के दायरे में रहकर कैसे सामाजिक न्याय और सही प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जा सकता है। कोर्ट का जोर यह भी था कि आरक्षण बिना आंकड़ों के नहीं दिया जाना चाहिए और सभी वर्गों को बराबरी का मौका मिलना चाहिए।
यह फैसला खासकर महाराष्ट्र जैसे राज्यों में बड़ा असर डालेगा, जहां जातिगत राजनीति और आरक्षण व्यवस्था का स्थानीय चुनावों में अहम रोल होता है।
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